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संजीव की आत्महत्या पर वरिष्ठ पत्रकार पवन सक्सेना ने पत्रकारों को दी यह सलाह ,पढ़िए यह लेख,

डा. पवन सक्सेना,
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, पत्रकारिता एवं जनसंचार में पीएचडी हैं। यह लेख मीडिया बिरादरी के साथियों के लिए है। )

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अलविदा संजीव,

संजीव ने आत्महत्या कर ली। दिल्ली में। अपने केबिन में। पंखे से लटकर। वह पंख फैलाना चाहते थे। उड़ना चाहते थे सफलता के आसमान में। पहले इंडिया टीवी में काम करते थे। बाद में न्यू मीडिया में आ गए। एक अपना यू ट्यूब चैनल खोल लिया। मीडिया कर्मी थे। किसी इन्वेस्टर का सहारा मिला। जो बाद में भाग गया। दुश्वारियां दरवाजा पीटने लगीं। संजीव टूट गए। जान दे दी। मैं व्यक्तिगत तौर पर संजीव को नहीं जानता। दुख हुआ। बुरा लगा। संजीव के लिए भी। उनके परिवार और कैंसर से जूझ रही उनकी पत्नी के लिए भी। मीडिया की पूरी बिरादरी के लिए भी। मीडिया की बिरादरी से सालों साल का रिश्ता है इसलिए कुछ बातें लिख रहा हूं। कड़वी हैं पर सह लीजिएगा।

 

 

 

मीडिया के साथी अक्सर व्यापारिक वेंचर्स में फेल हो जाते हैं। जब आप मीडिया में होते हैं। आपको काफी कुछ मिलता है। खासतौर पर नाम, पहचान और सबसे ज्यादा सम्मान, लेकिन सच यह भी है कि जरूरतें सिर्फ इससे पूरी नहीं होतीं। मीडिया, एक ऐसी दुनिया है जो हर दिन हमारे दिमाग को एक ठोस पदार्थ में बदलने का काम कर रही होती है। यह पदार्थ वहम और अहम के रसायन से मिलकर बनता है। खासतौर पर जब हम सो काल्ड मेन स्ट्रीम मीडिया में होते हैं, दम भर रहे होते हैं हमारे आसपास कई लोग इकट्ठा हो जाते हैं। जिन्हें वक्त के साथ हम अपनी पूंजी मान लेते हैं।

 

 

 

फोटो में दिवंगत पत्रकार संजीव ,

नेता, अफसर और कुछ धन्नासेठ। हमें लगता है यह हमेशा हमारे साथ यूंही बने रहेंगे, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि यह हमसे पहले किसी और के साथ थे और आगे किसी और के साथ होंगे। कई बार तो ऐसे आभासी रिश्ते आपसे आपके अपनों के खिलाफ जीवन भर ना भूलने वाली गलतिया करा देते हैं।सोच कर देखिए कहीं ऐसा तो नहीं आभासी रिश्ते निभाने वाला समाज एक पत्रकार के रूप मे आपक सिर्फ दुनियावी दुश्वारियों की एक सस्ती सी चाबी भर मान रहा हो और आप इनपर लाहलोट हुए जा रहे हों – विल्कुल कुर्बान। सरकार और नीतियां ऐसे मामलों में खामोश ही रहती हैं। अगर आप भी निश्चित वर्तमान को छोड़कर किसी ऐसे के सहारे अनिश्चित भविष्य मे कूदने जा रहे हैं , किसी पर निर्भर कोई मीडिया वेचर बनाना चाहते हैं तब थोड़ा ठहर जाइये … पहले गहराई से सोच लीजिए।चलिए … हो सकता है सभी के साथ अप्रिय ना हो। सावधानी के लिए यहां यह भी लिख देता हूं कि यह बातें सभी पर लागू नहीं होती हैं। अगर आप अवपाद हैं तब सौभाग्यशाली हैं और ईश्वर आपका यह सौभाग्य बनाये रखें।

 

 

लेकिन अगर नहीं हैं …. तब सच को खुद समझिये ताकि कहीं किसी के दूसरा संजीव बनने की नौबत ना आ जाये।लगता है संजीव के मामले का ताना बनाए भी कुछ ऐसे ही कच्चे धागों से बुना गया था। खबरों में किसी इन्वेस्टर के आने और फिर संजीव के नौकरी छोड़ने और फिर इन्वेस्टर के भाग जाने का जिक्र है। मैं यहां तथ्यों को गहराई में जाने की स्थिति में नहीं हूं पर जो जानकारी सामने है उसके आधार पर कहना चाहूंगा कि मीडिया के साथियों को यह समझना चाहिए कि कोई भी इन्वेस्टर अपनी पूंजी किसी परिस्थिति में किसी के साथ लगाता है। एक या तो आपके बिजनेस माडल में उसकी पूंजी में कई गुना इजाफा करने की ताकत हो। दो या फिर आपके पास दूसरे स्रोतों से आ रही उसकी पूंजी को सुरक्षित रखने के लिए आसमान छूती ताकत हो। अगर इन दोनों पैमानों पर आप खरे नहीं उतरते तब किसी दूसरे की पूंजी के सहारे अपने आप को खतरे के समुंदर में मत फेंकिये। मैं हतोत्साहित, निराशा या निगेटिविटी की बात नहीं कर रहा हूं।

 

 

मैं सिर्फ आंखे खोलकर सच से सामना करने को कह रहा हूं।मैं कुछ ऐसे व्यावसायी मित्रों को भी जानता हूं जो किसी पत्रकार के विद्वता भरे वचनों व अफसरों से रिश्तों को देखकर इतना प्रभावित हुए कि मीडिया वेंचर में कूद पड़े। लेकिन पत्रकार जो किसी मुख्य अखबार या चैनल में काम करते थे। जब उससे बाहर हुए और किसी नए वेंचर में आये तब उन्हीं सत्ताधीशों से उनके रिश्ते बदल गए जो उनके या वह जिनके बगलगीर हुआ करते थे। अब व्यवसायी मित्र जब अपने अनुभव बांटते हैं तब हर महीने होने वाले घाटे को देखकर हर दिन कलपते हैं, वेंचर से बाहर निकलने या फिर अनुपयोगी हो चुके पत्रकारों को बाहर करने की तरकीबें बनाते हैं या फिर दिल पर पत्थर रखकर शर्मा शर्मी में कुछ वक्त तक ऐसे लोगों को ढोते रहते हैं। देखिये, जैसे खबरें लिखना, स्टोरी बनाना एक कला है, प्रबंधन भी एक कला है। पत्रकारिता पढ़ने लिखने और सोच समझ को विकसित करने से आती है और प्रबंधन सीखने समझने और खुद को तपाने से आता है।
संजीव असफल हुए। जान देने से पहले उन्होंने लिखा – “यह मेरा ड्रीम था, जिसे मैंने चलाने की भरसक कोशिश की मगर अब हिम्मत नहीं बची है”। यह लिखकर वह दुनिया छोड़ गए पर इस इबारत में मीडिया के साथियों के लिए कुछ सवाल भी छूटे हैं। खासतौर पर उनके लिए जो कुछ अपना करना चाहते हैं।

 

 

मैं हतोत्साहित नहीं कर रहा। रिस्क लेंगे तभी आगे बढ़ेंगे। कोई भी योजना बनाइये, वेंचर बनाइये, छलांग लगाइये मगर सोंच समझकर। यह नए दौर का मीडिया है। आपके प्लान में साथ देने पहले तो कोई आयेगा नहीं। फंस भी गया तो जल्द ही भाग जायेगा। ऐसा ना हो, इसका पुख्ता इंतजाम कर लीजिए। संजीव की आत्महत्या पर लखनऊ से भाई सर्वेश कुमार सिंह जी ने सामयिक ही लिखा है – अपने नए – पुराने साथियों से संवाद बनाये रखिए। कोई अवसाद में जा रहा हो तब उसका हाथ थाम लीजिए। मैं भी सिर्फ यही कहूंगा। एक दूसरे का साथ दीजिए, ताकि हमारे बीच अब कोई दूसरा संजीव हिम्मत हौसला ना तोड़े। संजीव को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

 

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