बरेली। मरकज़-ए-अहले सुन्नत दरगाह आला हज़रत के सज्जादानशीन मुफ़्ती अहसन रज़ा क़ादरी(अहसन मियां) ने मुल्क भर के मालदार मुसलमानों से अपील करते हुए कहा कि अल्लाह ने मुसलमानो पर ज़कात फ़र्ज़ की। ऐसे शरई मालदार मुसलमान (जिसके पास साढ़े सात तोला सोना या इसकी कीमत या साढ़े बावन तोला चांदी या इसकी कीमत,रुपए-पैसे या चल-अचल संपत्ति हो और उस माल पर साल गुजर गया हो वो इस्लाम मे मालदार व्यक्ति कहलाता है) अपने माल की ज़कात व सदक़ा-ए-फित्र की रकम जल्द से जल्द ख़ुदा का शुक्र अदा करते हुए अदा कर दे। ताकि गरीब मुसलमान भी आने वाली ईद की खुशियों में शामिल हो सके।
मीडिया प्रभारी नासिर कुरैशी ने बताया आज मुफ़्ती अहसन मियां ने दरगाह स्थित टीटीएस मुख्यालय पर कहा कि मज़हब-ए-इस्लाम मे पांच स्तंभ में एक ज़कात भी है। ज़कात की अहमियत इस बात से भी समझी जा सकती है कि समाज में आर्थिक बराबरी के मकसद से कुरान में नमाज़ के साथ ज़कात का ज़िक्र आया है। ज़कात के साथ सदक़ा लफ्ज़ का भी जगह-जगह प्रयोग किया गया है। ज़कात निकालने से इंसान का माल पाक हो जाता है,उसमें बरकत होती है। मालदार मुसलमानो के माल पर गरीबों का हक़ है। उनकी जिम्मेदारी है कि वह लोग यतीम(अनाथ),बेवा(विधवा),बीमार, मदारिस-ए- इस्लामिया और ज़रूरतमंद तक ये रकम पहुँचा दे। मुसलमानों को उनकी आमदनी से पूरे साल में जो बचत होती है और एक साल बीत गया हो उस माल पर कुल ढाई प्रतिशत (2.5%) हिस्सा गरीबों में देना अनिवार्य है।
यानि अगर किसी के पास तमाम खर्च करने के बाद 1000 रुपए बचते है तो उसे 25 रुपए ज़कात अदा करनी है। वही सदक़ा-ए-फित्र वाजिब है। सदके की रकम अपनी और अपनी नाबालिग बच्चों की तरफ से निकालनी है। सदक़ा-ए-फित्र 2 किलो 47 ग्राम गेंहू या 4 किलो 94 ग्राम जौ,ख़जूर या मुनक्का या इसकी कीमत अदा करनी है। जकात या सदका बढ़ा कर जितना चाहे दे सकते है कम दिया तो अदा नही होगा। ज़कात व सदके की रकम माँ-बाप,दादा-दादी,नाना-नानी व नाती-नवासों को नही दी जा सकती। इसके अलावा भाई-बहन,चाचा-चाची,मामू-मुमानी, फूफी-फूफा,खाला-खालू के अलावा रिश्तेदारो,मदरसों,बीमारों,ज़रू