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स्पेशल रिपोर्ट ।। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने सबसे खराब दौर में ,पर्दे पर बात अच्छी बातें करने वाले अपनों के ही निशानों पर,

बरेली। देश बदल रहा तो यहां के हालात भी बदल रहे है। कभी आपने प्रिंट के अखबारों के संपादकों का जलवा देखा तो दौर वह भी शुरू हुआ जहां प्रिंट मीडिया के प्रति जनता का क्रेज कम हुआ क्योंकिं टीवी मीडिया पर उन्हें ताजा तश्वीरों के साथ ग्लैमर्स लुक के खबरें देखने को मिल रही थी। 90 के दशक में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कुछ मामलों में प्रिंट आगे चलता दिख रहा था। और प्रिंट की अगली पीढ़ी का बच्चा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तेजी से आगे बढ़ने की कोशिश में लगा था । कुछ ही समय बीता मीडिया का यह बच्चा पोलियो ग्रस्त हो गया। मतलब वित्त से लेकर हर तरह की समस्यांए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सामने आने लगी तो वही कुछ टीवी के संपादक सरकार और गैर सरकार के प्रतिनिधि के रूप में आ गए । यही वह दौर था कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने जनता का विश्वास खो दिया । जब खबरें ड्रामा हुई तो जनता ने भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को एक ड्रामा मान लिया। सरकार ने भी उन लोगों को पुचकारा जिन्होंने उनका साथ दिया।

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बाजार में रेवेन्यू कम होने से मीडिया की बड़ी परेशानी

एक दौर फिर आया जहाँ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बाजार में भागीदारी करीब 40 से 50 प्रतिशत कम हो गई । ऐसे में टीवी चैनलों के खर्च बड़े जिसे पूरा करने के लिए कुछ चैनलों ने अपने हिसाब से नए तरीके बना लिए। हालांकि यह तरीके भी आज के समय में ना काफी साबित हो रहे हैं।

 

 

मीडिया संस्थान अपने स्टाफ को नहीं देते है पेमेंट

मीडिया की इन्कम कम होने के बारे में तमाम चर्चाएं होती है। लेकिन कुछ संस्थान इस बात की गबाही देते है कि वह आज तक किसी बड़े लॉस में गए ही नहीं । कभी लॉस हुआ तो उसे पूरा भी कर लिया गया। आज देश में अधिकतर चैनल अपने छोटे शहर के रिपोर्टर को पेमेंट ही नहीं करते । यह कहानी कोई एक दिन की नहीं । इस सवाल को संसद से लेकर विधानसभा में उठाया जा चुका है। पर इससे ज्यादा कोई मामला आगे नहीं बढ़ सका।

 

दुनिया के विषयों पर बात करने वाले संपादक घर के मामलों पर रखते है चुप्पी,

देश में कई ऐसे कई बड़े संपादक हुए जिन्होंने सरकार के खिलाफ कई मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद की । विदेशों में भी अपने पेशे में क़ाबलियत रखने के चलते वाह वाही लूटी । लेकिन अपने घर से जुड़ी समस्याओं पर कभी नहीं बोले। कभी संपादकों ने हल्कू  जैसे काल्पनिक किरदारों के सहारे अपनी पत्रकारिता चमकाई तो कभी अपनी सेविंग खुजलाकर सरकारों को कोसा। बस सब कुछ यही तक ठीक था। कभी उनके प्रतिनिधि बनकर पूरे देश मे काम करने वाले लोगों के विषय पर एक बार नहीं बोला , कभी उनकी सुरक्षा गारंटी , उनकी इनकम , उनके घर , कभी लाइफ इन्सुरेंस जैसे मुद्दों पर बात नहीं की। सब कुछ एक चिंटू (मतलब मानवीय संवेदना नहीं रखने वाला व्यक्ति) बनकर सबकुछ देखते रहे। वह ऐसा क्यों नहीं करते क्योंकि उनकी जेब मे लगातार हरी गड्डियां जा रही थी। कोई मरे तो उनका क्या , उनकी राजनीति और पत्रकारिता दोनों ही चमक रही हैं।

मीडिया के गिरते स्तर का  असर मीडिया शैक्षिक संस्थानों पर भी पड़ा 

देश के कई मीडिया संस्थान पत्रकार बनाने का काम करते है। लेकिन जब पत्रकारिता का स्तर गिरा तो मीडिया की शिक्षा संस्थानों पर इसका असर दिखने लगा। बरेली जिले में मीडिया के दो प्रमुख संस्थानों में नाममात्र के एडमिशन हो सके या दो बार या उससे अधिक अखबारों में विज्ञापन देकर विद्यार्थियों को आकर्षित किया गया।

 

 

पैसा अत्यधिक कमाने की इच्छा हो तो इस फील्ड में नहीं आये

आप मीडिया संस्थानों में रहकर बहुत रुपया पैसा कमाना चाहते है तो आप बड़े शहरों की तरफ रुख नहीं करें। छोटे शहरों में स्ट्रिंगर ही रखे जाते है जहां पेमेंट होने या नहीं होने की दोनों संभावनाएं रहती हैं। वर्तमान में अधिकतर चैनल छोटे शहरों में अपने प्रतिनिधियों को पहचान के साथ उनकी मेहनत का एक रुपया नहीं देते अगर देते भी उस से रिपोटर्स को अपने परिवार का पालन पोषण करना बड़ा मुश्किल हो जाता हैं।

 

सरकार का पत्रकारों की समस्याओं पर ध्यान नहीं

देश में आजादी के बाद पत्रकारों के कल्याण के लिए कई योजनाएं आई जहां उन्ही पत्रकारों को फायदा हुआ जो मान्यता प्राप्त है। सवाल यही उठता है कि अगर कोई पत्रकार मान्यता प्राप्त नहीं है तो वह सरकारी सुविधाओं को पाने का पात्र नहीं होगा। तो इस पेशे का दोष भी यही हैं।

 

क्राइम रिकॉर्ड होने के बाद भी मीडिया के क्षेत्र में लोगों की हो गई इंट्री

मीडिया नेचर से गंभीर और वुद्धिमान लोगो का पेशा माना जाता है। हालांकि इस पेशे में उन लोगों की भी इंट्री हो गई जो अपराध के क्षेत्र में पहले से थे या फिर ज्यादा पैसा कमाने के चलते वह अपराधी हो गए। लेकिन मीडिया में रहने के चलते वह सत्ता के पास बैठे जिम्मदार लोगों तक पहुंच गए।

 

कल होगा नया उदय, यह उम्मीद रखना चाहिए

मीडिया में इतनी कमियां खूबी के बाद भी लोग मीडिया पर आज भी विश्वास रखते है।।उसकी वजह यही है कि पत्रकारिता आज भी लोगों के लिए मिशन है। इसलिए हम सभी का और हमारी सरकार की जिम्मेदारी है सरकार इस पेशे पर अपनी नजर रखें अगर लोकतंत्र जिंदा रहना है तो पत्रकार और मीडिया संस्थानों का भी ध्यान रखना बेहद जरूरी है।

 

सोशल मीडिया आज सबसे ज्यादा मजबूत

सोशल मीडिया आज के दौर में सबसे मजबूत दौर में है। सबसे कम समय में सूचना देना , खबरों को तुरंत  प्रसारित करना  , आकर्षक तरीके से खबरों के उपस्थिति से भी सोशल मीडिया लोकप्रिय हुआ है। बस इस फील्ड में यह हो जाये सरकार कुछ मानक तय करने के साथ सरकारी विज्ञापनों में जिले स्तर से उनकी हिस्सेदारी तय कर दे तो सोशल मीडिया अन्य सभी मीडिया प्लेटफार्म का एक अच्छा विकल्प  साबित हो सकता हैं।

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