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रानी तलाश कुंवरि में अंग्रेजों को दिए थे ना भूलने वाले जख्म , नाराज अंग्रेजों ने 500 क्रांतिकारियों को लटकाया था फांसी पर

काशिफ समर,

बस्ती : प्रथम स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन को जन क्रांति का रूप देने वाली अमोढ़ा रियासत की रानी तलाश कुंवरि के बलिदान को आज भी गौरव के साथ याद किया जाता है। उस आंदोलन में रानी ने पूरी ताकत से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। तब रानी के सिपहसालारों और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जंग में शामिल सैकड़ों क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने छावनी में पीपल के पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी थी। लेकिन क्रांतिकारियों का हौसला नहीं डिगा। फिरंगियों को देश से खदेड़ने की लड़ाई जारी रखी और उन्हें कामयाबी भी मिली।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में दूरदराज के इलाको में जमीनी स्तर के बहुत से जनसंघर्षों को इतिहासकारों ने नजरअंदाज किया है। इसी नाते बहुत से क्रांति नायकों और नायिकाओं की वीरता की कहानियां अभी भी अपेक्षित महत्व नहीं पा सकी हैं। ऐसी ही एक महान सेनानी बस्ती जिले की अमोढ़ा रियासत की रानी तलाश कुंवरि थीं, जिन्होने अंग्रेजों से आखिरी सांस तक लड़ाई लड़ी। उन्होंने अपने इलाको में लोगों में अंग्रेजों के खिलाफ ऐसी मुहिम चलाई थी कि, रानी की शहादत के बाद कई महीने जंग जारी रही। सेनापति अवधूत सिंह भी काफी बहादुर थे। उन्होंने रानी की शहादत के बाद हजारों क्रांतिकारियों को एकत्र कर 6 मार्च 1858 को अमोढ़ा और बाद में अन्य स्थानों पर युद्ध किया।

वह अपने साथियों के साथ बेगम हजरत महल को नेपाल तक सुरक्षित पहुंचाने भी गए थे। लेकिन लौटने पर अंग्रेजों के हाथ पड़ गए और छावनी मे पीपल के पेड़ पर उनको फांसी दे दी गई। उनके वंशजों में राम सिंह ग्राम बभनगांवा में आज भी रहते हैं। बागियों की रामगढ़ की गुप्त बैठक में शामिल सभी लोग जल्दी ही पकड़े गए और इन सबको बिना मुकदमा चलाए फांसी पर लटका दिया गया। जो भी नौजवान अंग्रेजों की पकड़ में आ जाता उसे छावनी में पीपल के पेड़ पर रस्सी बांध कर लटका दिया जाता था। इसी पीपल के पेड़ के पास एक आम के पेड़ पर भी अंग्रेजों ने जाने कितने लोगों को फांसी दी। इस पेड़ की मौजूदगी 1950 तक थी और इसका नाम ही फंसियहवा आम पड़ गया था। पीपल का पेड़ तो खैर अभी भी है पर आखिरी सांस ले रहा है। इस स्थल पर करीब 500 लोगों को फांसी दी गई।

अंग्रेजों ने प्रतिशोध की भावना से गांव के गांव को आग लगवा दी।1858 से 1972 तक छावनी शहीद स्थल उपेक्षित पड़ा था। 1972 में शिक्षा विभाग के अधिकारी जंग बहादुर सिह ने अध्यापकों के प्रयास से एक शिलालेख लगवाया और कई गांव के लोगों से इतिहास संकलन का प्रयास किया। इसी के बाद कई शहीदों के नाम प्रकाश में आए जिनको शिलालेख पर अंकित किया गया। पर इस स्मारक की दशा बहुत खराब है। 30 जनवरी को शहीद दिवस पर यहां एक छोटा मेला लग जाता है,दूसरी ओर अमोढ़ा किला तथा राजमहल भी भारी उपेक्षा का शिकार है।

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