बरेली। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बरेली हिंसा मामले से जुड़े मौलाना तौकीर रजा से जमानत प्रकरण में अहम टिप्पणी करते हुए कहा है कि भीड़ द्वारा ऐसा कोई नारा देना, जो भारतीय कानून में निर्धारित सजा के विपरीत “मौत या सिर काटने” जैसी सजा का आह्वान करता हो, न केवल संविधान की भावना के खिलाफ है बल्कि यह देश की संप्रभुता और कानून व्यवस्था को खुली चुनौती भी है। इसी बात को आधार बनाते हुए कोर्ट ने मौलाना तौकीर की बेल खारिज कर दी ।
हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि धार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति और हिंसा के लिए उकसाने में बड़ा अंतर है। संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जरूर है, लेकिन उस पर अनुच्छेद 19(2) के तहत युक्तिसंगत प्रतिबंध भी लागू होते हैं।
पूरा मामला 26 सितंबर 2025 का है, जब बरेली के थाना कोतवाली क्षेत्र के बिहारपुर इलाके में इस्लामिया इंटर कॉलेज के आसपास बड़ी संख्या में लोगों के एकत्र होने की सूचना पुलिस को मिली थी। आरोप है कि निषेधाज्ञा (धारा 163 BNSS) लागू होने के बावजूद करीब 500 से अधिक लोग एकत्र हुए और सरकार के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी।
एफआईआर के अनुसार भीड़ ने एक विवादित नारा लगाया। पुलिस द्वारा रोकने की कोशिश के दौरान हालात बिगड़ गए। आरोप है कि पुलिसकर्मियों पर पथराव किया गया, फायरिंग हुई, पेट्रोल बम फेंके गए और सरकारी व निजी वाहनों को नुकसान पहुंचाया गया, जिसमें कई पुलिसकर्मी घायल हुए। मौके से सात लोगों को गिरफ्तार किया गया और बाद में 25 नामजद व करीब 1700 अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया।
मामले की सुनवाई कर रही न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल की पीठ ने कहा कि भारत में किसी भी धर्म, व्यक्ति या समूह को कानून अपने हाथ में लेने की अनुमति नहीं है। अदालत ने साफ कहा कि भारतीय कानून में किसी भी धार्मिक अपमान के लिए सिर काटने या मौत की सजा का कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए ऐसे नारे सीधे तौर पर कानून के शासन को चुनौती देते हैं।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि “अल्लाहु अकबर”, “जय श्रीराम”, “हर हर महादेव” या “जो बोले सो निहाल” जैसे धार्मिक उद्घोष सामान्य परिस्थितियों में अपराध नहीं हैं, लेकिन यदि इनका इस्तेमाल डर पैदा करने, हिंसा भड़काने या किसी समुदाय को धमकाने के लिए किया जाए, तो यह आपराधिक कृत्य की श्रेणी में आएगा।
फैसले में पैगंबर मोहम्मद के जीवन से जुड़े एक प्रसंग का भी उल्लेख किया गया, जिसमें बताया गया कि उन्होंने अपमान के बावजूद कभी हिंसा का रास्ता नहीं अपनाया। कोर्ट ने कहा कि हिंसा या हत्या की बात करना न केवल कानून के खिलाफ है, बल्कि इस्लाम के मूल सिद्धांतों के भी विपरीत है।
अदालत ने कहा कि इस तरह के नारे और हिंसक गतिविधियां भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 (राज्य की संप्रभुता को चुनौती), धारा 196 (धार्मिक आधार पर वैमनस्य), 298, 299 और 302 जैसी गंभीर धाराओं के तहत दंडनीय हैं।
कोर्ट ने प्रथम दृष्टया माना कि निषेधाज्ञा के बावजूद अवैध भीड़ एकत्र हुई, हिंसा हुई और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। ऐसे में जमानत पर विचार करते समय इन गंभीर तथ्यों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
हाईकोर्ट ने अपने फैसले के जरिए स्पष्ट संदेश दिया है कि भारत में कानून सर्वोपरि है और धर्म के नाम पर हिंसा, डर या गैर-कानूनी सजा का आह्वान न तो स्वीकार्य है और न ही संरक्षित।




