-रामेंद्र प्रसाद गुप्ता (भामाशाह)
माहौर वैश्य रत्न,
द्वापर में दानवीर कर्ण का प्रादुर्भाव हुआ। महाकवि रामधारी सिंह दिनकर ने रश्मिरथी नामक महाकाव्य के सात सर्गों में उनकी महानता का वर्णन किया है। जिस तरह कर्ण ने अपने जीवन की चिंता किए बिना ही कवच-कुंडल दान कर दिए, ठीक उसी प्रकार कलियुग में दानवीर भामाशाह का नाम आता है। उन्होंने भी मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। आज भी हमारे यहाँ कोई व्यक्ति समाज कल्याण या धर्म के किसी विषय पर दान देता है तो उन्हें भामाशाह के नाम से बुलाते हैं। आज के समय दानवीर शिरोमणि भामाशाह दानदाताओं का पर्याय बन चुके हैं। भामाशाह महाराणा प्रताप के करीबी मित्र थे। जिस समय महाराणा प्रताप अकबर के हाथों अपना सर्वस्व गवांकर इधर-उधर भटक रहे थे, भामाशाह ने उनकी मदद की। भामाशाह के सहयोग से ही उन्होंने पुन: अपनी सेना तैयार की और अपने खोए हुए भू-भाग का अधिकांश हिस्सा अर्जित कर लिया।
28 जून 1547 को मेवाड़ के महाजन वैश्य परिवार में भामाशाह का जन्म हुआ था। उनके पिता भारमल रणथम्भौर के किलेदार थे। भामाशाह का सहयोग मेवाड़ व महाराणा प्रताप के लिए निर्णायक साबित हुआ। उन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपनी सारी संपदा दान कर दी। यहां तक की मेवाड़ के अस्तित्व की रक्षा के लिए उन्होंने दिल्ली की गद्दी का प्रलोभन भी ठुकरा दिया। उन्होंने महाराणा प्रताप की ऐसे समय में मदद की, जब वह अपना किला हारकर परिवार सहित जंगलों व पहाड़ियों में भटकर रहरहे थे। उनके सहयोग से ही महाराणा प्रताप ने नई सेना का गठन किया। जंगलों में ही उनको प्रशिक्षित किया। बाद में मुगलों पर आक्रमण कर उन्होंने अपना जो भू-भाग गंवाया था, उसका अधिकांश हिस्सा अर्जित कर लिया। अपनी इसी दानशीलता व मातृभूमि से प्रेम के चलते वह सदा के लिए अमर हो गए। दरअसल भामाशाह को राष्ट्रहित में सर्वस्व निछावर करने की प्रेरणा गुरु नानक के पुत्र श्री चंद्र से मिली और आज के मानवो को यह प्रेरणा भामाशाह की जीवनी मिलती है। भामाशाह का वह वाक्य आज भी राष्ट्र भक्ति का प्रेम जागृत करता है।
जब भामाशाह अपनी सभी संपत्ति महाराणा प्रताप को राष्ट्र हित के लिए दान कर रहे थे। उसी समय महाराणा प्रताप ने कहा कि कुछ तो अपने पास बचा कर रखो क्योंकि, जीवन बहुत बड़ा है। धन की आवश्यकता जीवन में बहुत पड़ती है। उसी समय भामाशाह ने जवाब दिया कि यह संपत्ति राष्ट्र हित के लिए है। जब राष्ट्र ही नहीं बचेगा तो मैं संपत्ति का क्या करूंगा। अगर राष्ट्र रहेगा तो संपत्ति तो पुनः अर्जित की जा सकती है। उनका यही वाक्य आज भी देश पर सर्वस्व निछावर करने की प्रेरणा देता हैं। उन्होंने समस्त मानव जाति को यही सिखाया कि परोपकार से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है। परोपकार से ही व्यक्ति की पहचान होती है। इसलिए अपने संकुचित स्वार्थ से ऊपर उठकर मानव जाति का निस्वार्थ उपकार करना ही मनुष्य का प्रधान कर्तव्य है। जो मनुष्य जितना पर- कल्याण के कार्य में लगा रहता है।वह उतना ही महान बनता है।
भामाशाह ने जो भी किया। वह राष्ट्र के हित में ही किया। उनके पास कोई भी प्राणी कभी भी निराश होकर के नहीं गया। निरंतर समाज के ऊपर गरीबों के ऊपर परोपकार की भावना से धन लुटाते रहे। उनके जीवन का मूल मंत्र रहा परोपकार।परोपकार और राष्ट्रप्रेम के लिए हृदय की पवित्रता अति आवश्यक है। यह शिक्षा हमें भामाशाह की जीवनी के अलावा पशु -पक्षी, वृक्ष, नदियों से भी प्राप्त होती है। प्रकृति सदा परोपकार युक्त दिखाई देती है। जैसे मेघवर्षा का जल स्वयं नहीं पीते ।वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते। नदियां दूसरों के उपकार के लिए निरंतर बहती हैं। सूर्य सबके लिए प्रकाश वितरित करता है। चंद्रमा अपनी शीतल किरणों से सबको शांति देता है। सुमन सर्वत्र अपनी सुगंध फैलाते हैं। मानव जाति में भी ऐसे महापुरुष समय-समय पर अवतरित होते हैं और अपने जीवन जीने की कला और आदर्शों से समाज का मार्गदर्शन करते हैं। और उनका जीवन समस्त मानव जाति के लिए प्रेरणा स्रोत हो जाता है। भामाशाह के भाई और पुत्रों ने भी देश के लिए कुर्बानियां दी।
भामाशाह के जीवन का उद्देश्य यही है कि राष्ट्र धर्म से बड़ा कोई धर्म नहीं है। इसलिए हम सभी को संकल्प लेना चाहिए कि राष्ट्र धर्म सर्वोपरि है। जिन्होंने भी राष्ट्रधर्म को सर्वोपरि माना है। उनकी महानता युगों युगों तक गाई जाती है। भामाशाह की जीवनी से प्रेरित होकर राजस्थान की सरकार ने भामाशाह के नाम पर कई योजनाएं चलाई हुई है। अभी हाल में ही उत्तर प्रदेश सरकार ने भी भामाशाह भाव स्थिरता कोष योजना को लागू किया है। सरकार भी उनके जीवन से सीख ले रही है। उदारता के गौरव दानवीर शिरोमणि भामाशाह की जयंती हम सभी को धूमधाम से मनाना चाहिए। उनके जीवन का अनुसरण ही समस्त मानव जाति का सच्चा धर्म है।
