मोहम्मद आदिल
बरेली। भारत में सूफीइज़्म के माध्यम से खुलूस और मुहब्बत की तबलीग़ (प्रसार) ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ से शुरू हुई थी। ख़ानक़ाह-ए-नियाज़िया उसी सिलसिले की अहम दरगाह है और पूरी दुनिया में उसके मुरीद हैं।
ख़ानक़ाह-ए-नियाज़िया की तीन सदी पुरानी रस्म ‘जश्न-ए-चिरागां मंगलवार को अदा की गई। यह रस्म एक खुसूसी इबादत को भी अंजाम देती है और मुल्क की तहजीब (संस्कृति) को भी मजबूत करती है। चाँद की 17 रबीउस्सानी को जश्न-ए-चिरागां की रिवायत (परम्परा) है। यह एक सूफी रिवायत (परम्परा) है जो मुल्क की गंगा-जमुनी तहज़ीब के बल पर सद्भावना का पैग़ाम (संदेश) देती है।
‘जश्न-ए-चिरागां’ में बीते कई सालों में अब तक लाखों लोग शिरकत कर चुके हैं, वहीं कोविड-19 की वजह से 02 साल के बाद इस रस्म में काफी तादाद में लोगों ने शिरकत की। जिनमें मुकामी (स्थानीय), देश के कोने-कोने से आए लोगों के अलावा विदेश (बैरूनी) अक़ीदतमंद (श्रद्धालु) भी शामिल हैं। मान्यता है कि ‘जश्न-ए-चिरागां’ में लोग चिराग जलाकर जो मन्नत माँगते हैं, वह पूरी हो जाती है। यह खास तक़रीब और तारीख ख़ानक़ाह के बुजुर्गाें को खास अतिया है।
‘जश्न-ए-चिरागां’ में सज्जादानशीन हज़रत महेंदी मियाँ के अलावा सभी साहबज़ादगान, अक़ीदतमंदों ने द्वारा माँगी गई मन्नतों के लिए खुसूसी दुआ करी गई और बाद नमाज़-ए-मग़रिब चिरागँ रौशन किया गया। ‘जश्न-ए-चिरागां’ का आग़ाज़ सुबह फज़्र की नमाज़ के बाद कुरआन ख़्वानी से पाक़ीज़ा रस्म के साथ हुआ। इसके बाद अक़ीदतमंद दिन भर मन्नत-ओ-मुरादों, चादरपोशी, गुलपोशी और नज्ऱ-ओ-नियाज़ में मसरूफ रहें। शाम को कुल शरीफ की रस्म के बाद सज्जादानशीन हज़रत महेंदी मियाँ ने सोने और चाँदी के ख़ानक़ाही चिराग रौशन किया फिर लोग क़तार दर क़तार चिराग हासिल करते रहे। इसी के साथ मन्नतों के चिराग रोशन करने का सिलसिला देर रात तक चला और ख़ानक़ाही कव्वाल कुल शरीफ के खुसूसी कलाम पेश कियासज्जादानशीन महेंदी मियाँ मुल्क और हाज़रीन के लिए खुसूसी दुआ की।