संजीव मेहरोत्रा, महामंत्री – बरेली ट्रेड यूनियंस फेडरेशन
हाल ही में नेता विपक्ष द्वारा राज्यसभा में पूछे गए सवालों के जवाब में सरकार ने जो आंकड़े प्रस्तुत किए, उनसे साफ हो गया है कि देश के सार्वजनिक बैंकों में स्टाफ की संख्या में निरंतर गिरावट दर्ज की जा रही है। यह गिरावट ऐसे समय में हो रही है जब देश में बेरोजगारी गंभीर समस्या बनी हुई है और बैंकिंग सेवाओं की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है।
विगत कुछ वर्षों में विभिन्न बैंक संगठन लगातार कर्मचारियों की भर्ती की मांग करते रहे हैं। लेकिन स्थिति जस की तस है। हाल ही में 9 जुलाई को हुई बैंक कर्मचारियों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल में भी नई भर्तियों का मुद्दा प्रमुख रहा। अब देखना यह होगा कि इस आंदोलन का सरकार पर कोई ठोस असर पड़ता है या नहीं।
वर्तमान स्थिति यह है कि बैंकों में एक्जीक्यूटिव स्तर के पद तो निरंतर बढ़ रहे हैं, लेकिन चपरासी और लिपिक जैसे बुनियादी पदों पर नई नियुक्तियां लगभग ठप हैं। जबकि हर साल बड़ी संख्या में कर्मचारियों का प्रमोशन, रिटायरमेंट और आकस्मिक मृत्यु जैसी वजहों से पद खाली हो जाते हैं।
रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर ने हाल में बैंकों से बेहतर ग्राहक सेवा की अपेक्षा जताई है, लेकिन स्टाफ की कमी जैसे मूलभूत मुद्दों पर वह भी मौन हैं। सवाल उठता है कि जब बैंकों में ग्राहक की संख्या और कार्यभार बढ़ रहा है, तो पर्याप्त स्टाफ के बिना सेवाएं कैसे सुधरेंगी?
राज्यसभा में मंत्री द्वारा दिए गए उत्तर के अनुसार वित्त वर्ष 2025-26 में लगभग 48,578 नई नियुक्तियों (चपरासी, लिपिक और अधिकारी स्तर) की योजना बनाई जा रही है। हालांकि यह संख्या सतही रूप से बड़ी लग सकती है, लेकिन जब हर साल बड़ी संख्या में कर्मचारियों के रिटायर होने के आँकड़े देखे जाते हैं, तो यह आंकड़ा अपर्याप्त प्रतीत होता है।
वर्तमान में चाहे ग्रामीण बैंक शाखाएं हों या शहरी बैंक शाखाएं – सभी में स्टाफ की भारी कमी महसूस की जा रही है। हैरानी की बात यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक लगातार मुनाफा कमा रहे हैं, बावजूद इसके कर्मचारियों की भर्ती के मामले में सुस्ती बनी हुई है। सरकार ने पिछले 10 वर्षों में करीब 12 लाख करोड़ रुपये के ऋणों को बट्टे खाते में डाल दिया है, जो इस क्षेत्र की वित्तीय नीति पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लगाता है।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बैंकों में पर्याप्त जनबल सुनिश्चित किया जाना न केवल समय की मांग है, बल्कि एक अनिवार्य आवश्यकता भी है। यदि बैंकों को वाकई ‘सर्विस सेक्टर’ बनाना है, तो उनकी रीढ़ – यानी कर्मचारी वर्ग – को मजबूत करना ही होगा।
