दीपशिखा,
सूनी गलियारों से निकला मुसाफिर ।
फिर से अपनी चित्थरो को समेटे ।।
धूं धूं फूंकता बेसुध साँसे ।
धने धुंध में मशालों को जलाते ।।
पल भर पलट कर देख जरा ।
बिखरे धागों में मिलेगा पूर्णता का सिरा ।।
अधूरे सपनों को डूबोने जब चला ।
छुपने से मिटता नहीं कहती तारों की दुनिया ।।
कोमल अंकुर धरा को निकलता फाड़कर।
चलने से मिलेगा उचित अनुचित का पता ।।
नोट :यह कवि के अपने शब्द है।
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