रिपोर्ट: भीम मनोहर | बरेली
बरेली।रुहेलखंड की रूहानी मिट्टी ने कई ऐसी हस्तियां जन्म दीं जिन्होंने धर्म, ज्ञान और साहित्य के क्षेत्र में गहरी छाप छोड़ी। उनमें सबसे रौशन नाम है इमाम अहमद रज़ा खान फाजिले बरेलवी, जिन्हें पूरी दुनिया में “आला हज़रत” के नाम से जाना जाता है। आला हज़रत न केवल मज़हबी इल्म के माहिर थे, बल्कि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ मुखर आवाज भी थे। उनका फतवों और कलम से किया गया विरोध आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है।
14 जून 1856 को बरेली के मोहल्ला जसोली (ज़खीरा) में जन्मे आला हज़रत एक रूहानी और इल्मी माहौल में पले-बढ़े। उनके पिता मुफ्ती नक़ी अली खान अपने दौर के मशहूर आलिम थे। बचपन से ही आला हज़रत का रुझान इल्म और दीनी तालीम की तरफ रहा। कम उम्र में ही उन्होंने फतवे लिखने शुरू कर दिए, जिन्हें दुनिया भर के उलेमा ने सराहा। उनकी लिखी लाखों फतवों का संग्रह ‘फतावा रज़विया’ आज भी इस्लामी कानून का अहम दस्तावेज माना जाता है।
आला हज़रत को अंग्रेजों से सख्त नफरत थी। उन्होंने फिरंगी हुकूमत के खिलाफ कई फतवे जारी किए और मलिका विक्टोरिया के टिकट को खतों पर जानबूझकर उल्टा चिपकाया, ताकि उनका अपमान हो सके। वे कहते थे कि “ये फिरंगी तिज़ारत के बहाने आए और मुल्क पर कब्जा कर जुल्म ढाने लगे।”
आला हज़रत ने न केवल कुरान-हदीस में महारत हासिल की, बल्कि गणित, अर्थशास्त्र, दर्शन, भूगोल, एस्ट्रोनॉमी, केमिस्ट्री, फिजिक्स समेत अनेकों विषयों पर सैकड़ों किताबें लिखीं। उनकी क़लम का असर सिर्फ हिंदुस्तान तक नहीं, बल्कि तुर्की, मिस्र, अमेरिका, इंग्लैंड, दुबई, सऊदी अरब समेत अनेक देशों तक फैला। ऑक्सफोर्ड, लंदन, शिकागो, हैदराबाद और रोहिलखंड यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों में आज भी उनकी जिंदगी और काम पर रिसर्च हो रही है।
साल 1904 में उन्होंने मोहल्ला सौदागारान में मदरसा मंज़र-ए-इस्लाम की स्थापना की, जहां से अब तक लाखों छात्र तालीम लेकर दुनिया भर में इल्म की रौशनी फैला चुके हैं।
दरगाह के प्रवक्ता नासिर कुरैशी के अनुसार, दरगाह प्रमुख हज़रत सुब्हान रज़ा खान (सुब्हानी मियां) व सज्जादानशीन मुफ्ती अहसन रज़ा कादरी (अहसन मियां) आला हज़रत की तालीमी और रूहानी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। उनके नेतृत्व में इस साल 107वां उर्से रज़वी 18, 19 और 20 अगस्त को इस्लामिया मैदान, बरेली में पूरी शान-ओ-शौकत से मनाने की तैयारियां जोरों पर हैं।
